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कविता

मेगलोमैनिया

प्रदीप जिलवाने


पटरियों पर जिस बेहरमी से गुजरती है रेल
या सन्नाटे को जिस क्रूरता से तोड़ता है सायरन
तुमने भी तो धरती को दिये हैं दृश्य कुछ ऐसे ही

बतौर उपहार

बढ़ाया है कब्रस्तानों की सरहदों को और
उनकी तादात को भी

क्या एक जूता नाकाफी नहीं होता इसके लिए
भले ही वह आत्मा को उधेड़ जाए

हम समझते हैं
तुम्हारी महानताबोध के रहस्य
और यह भी समझते हैं कि
हमें समझना नहीं चाहिए
और यह भी समझते हैं कि
हमें समझने की आवश्यकता नहीं है
और यह भी समझते हैं कि
हम समझकर आखिर कर भी लेंगे क्या ?

मगर यह तो हमारी समझ है
तुम इसे अपनी समझ क्यों समझते हो ?

(महानताबोध के भ्रांतिपूर्ण विश्वास की स्थिति)

 


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हिंदी समय में प्रदीप जिलवाने की रचनाएँ